Iran-Israel war: ईरान और इजराइल के बीच जारी टकराव में अमेरिका की संभावित एंट्री ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नई उथल-पुथल मचा दी है। इसका सबसे बड़ा असर मिडिल ईस्ट की स्थिरता और वैश्विक तेल आपूर्ति पर पड़ने वाला है। विश्लेषकों का मानना है कि यदि हालात और बिगड़ते हैं, तो कच्चे तेल की कीमतों में भारी उछाल देखने को मिलेगा। इससे भारत जैसे तेल आयातक देशों की अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ सकता है। भारत अपनी जरूरत का लगभग 90% कच्चा तेल आयात करता है। ऐसे में कीमतों में कोई भी बढ़ोतरी सीधा असर महंगाई, आयात बिल, रुपये की वैल्यू और सबसे महत्वपूर्ण GDP पर डालती है।

भारत जैसे देश, जो अपने कच्चे तेल की जरूरत का लगभग 90% आयात करता है, के लिए यह स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकती है। बढ़ती तेल कीमतें न केवल महंगाई को बढ़ावा देती हैं, बल्कि आयात बिल, रुपये की कीमत और जीडीपी पर भी नकारात्मक असर डालती हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत इस तेल महंगाई को झेल पाएगा? इसके जवाब के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना होगा और 2008 की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करना होगा।
2008 में कच्चे तेल की कीमतों का उछाल- Iran-Israel war
2008 में वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतें अपने चरम पर थीं। उस समय कीमतें 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थीं। कुछ विशेषज्ञ तो यह भी अनुमान लगा रहे थे कि कीमतें 200 डॉलर तक जा सकती हैं। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं। उस समय भारत की अर्थव्यवस्था को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। जीडीपी वृद्धि दर, जो सामान्य रूप से 7-8% के बीच रहती थी, 3.1% तक गिर गई। हालांकि, यह गिरावट केवल तेल कीमतों की वजह से नहीं थी, बल्कि वैश्विक वित्तीय संकट ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई थी।

उस समय महंगाई भी एक बड़ी समस्या थी। 2008 से 2012 के बीच औसत वार्षिक महंगाई दर 9.9% थी। बढ़ती तेल कीमतों का बोझ उपभोक्ताओं पर पड़ रहा था, जिससे रोजमर्रा की चीजों की कीमतें बढ़ रही थीं। इसके अलावा, रुपये की कीमत में गिरावट और आयात बिल में वृद्धि ने भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव डाला।
तत्कालीन सरकार ने कई कदम उठाए, जैसे कि तेल सब्सिडी को कम करना और ईंधन की कीमतों को बाजार के हिसाब से तय करने की शुरुआत करना। इन उपायों से कुछ राहत मिली, लेकिन अर्थव्यवस्था को पूरी तरह स्थिर करने में समय लगा।
वर्तमान स्थिति: तेल की कीमतें और भारत- Iran-Israel war
आज की बात करें तो कच्चे तेल की कीमतें 75-80 डॉलर प्रति बैरल के बीच हैं। यह 2008 के 147 डॉलर के मुकाबले आधी से भी कम है। अगर महंगाई के हिसाब से समायोजित करें, तो वास्तविक कीमत 2008 के स्तर से 66% कम है। इसका मतलब है कि मौजूदा कीमतें ऐतिहासिक रूप से अभी भी कम हैं।
हालांकि, होर्मुज स्ट्रेट के बंद होने की स्थिति में कीमतें 110-120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं, जैसा कि कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है। ऐसी स्थिति में भारत के सामने कई चुनौतियां होंगी:
- महंगाई में वृद्धि: तेल की कीमतें बढ़ने से पेट्रोल, डीजल और अन्य ईंधन की कीमतें बढ़ेंगी। इससे ट्रांसपोर्ट लागत बढ़ेगी, जो रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतों को प्रभावित करेगा।
- आयात बिल में इजाफा: भारत का तेल आयात बिल बढ़ेगा, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ेगा।
- रुपये पर दबाव: आयात बिल बढ़ने से रुपये की कीमत में गिरावट आ सकती है, जिससे आयातित सामान और महंगे हो जाएंगे।
- जीडीपी पर असर: बढ़ती महंगाई और आयात लागत से आर्थिक वृद्धि प्रभावित हो सकती है।
क्या भारत तैयार है?- Iran-Israel war
भारत की अर्थव्यवस्था आज 2008 की तुलना में अधिक मजबूत स्थिति में है। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने तेल कीमतों के उतार-चढ़ाव से निपटने के लिए कई कदम उठाए हैं:
- तेल भंडारण: भारत ने रणनीतिक पेट्रोलियम भंडार बनाए हैं, जो आपात स्थिति में तेल आपूर्ति को सुनिश्चित कर सकते हैं।
- नवीकरणीय ऊर्जा: सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश ने तेल पर निर्भरता को कुछ हद तक कम किया है।
- आर्थिक सुधार: रुपये की स्थिरता और विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत करने के लिए कई नीतिगत कदम उठाए गए हैं।
इसके अलावा, वैश्विक स्तर पर तेल आपूर्ति की स्थिति भी पहले से बेहतर है। अमेरिका ने पिछले एक दशक में अपने तेल उत्पादन को दोगुना कर लिया है और अब वह दुनिया के प्रमुख तेल उत्पादक देशों में शामिल है। इससे मध्य पूर्व के तनाव का वैश्विक तेल कीमतों पर असर पहले की तुलना में कम हो गया है।
महंगाई का प्रभाव- Iran-Israel war
वर्तमान में भारत में महंगाई दर मल्टी-ईयर निम्न स्तर पर है। मई 2025 की बात करें तो, महंगाई दर काफी हद तक नियंत्रण में है। लेकिन अगर तेल की कीमतें 120 डॉलर के स्तर को छूती हैं, तो महंगाई बढ़ने की संभावना है। इससे उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति प्रभावित होगी, खासकर निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों की।
भविष्य की संभावनाएं- Iran-Israel war
क्या इतिहास खुद को दोहराएगा, या भारत इस बार तेल कीमतों के झटके को बेहतर तरीके से झेल पाएगा? यह कई कारकों पर निर्भर करेगा:
- वैश्विक तेल आपूर्ति: अगर अन्य तेल उत्पादक देश, जैसे सऊदी अरब और रूस, आपूर्ति बढ़ाते हैं, तो कीमतों पर नियंत्रण हो सकता है।
- सरकारी नीतियां: भारत सरकार तेल सब्सिडी, करों में कटौती या अन्य उपायों के जरिए उपभोक्ताओं को राहत दे सकती है।
- वैकल्पिक ऊर्जा: नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग बढ़ने से तेल पर निर्भरता कम होगी, जो भविष्य में भारत के लिए फायदेमंद होगा।
ईरान-इजराइल युद्ध और होर्मुज स्ट्रेट के संभावित बंद होने से कच्चे तेल की कीमतों में उछाल आ सकता है, जिसका भारत की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ेगा। हालांकि, मौजूदा कीमतें ऐतिहासिक रूप से कम हैं, और भारत ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए हैं। फिर भी, सरकार और नीति निर्माताओं को सतर्क रहने की जरूरत है। तेल कीमतों के बढ़ने से महंगाई, आयात बिल और जीडीपी पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए समय पर कदम उठाने होंगे।
क्या भारत इस चुनौती से पार पा लेगा? यह समय और सरकार की नीतियों पर निर्भर करता है। लेकिन एक बात तय है कि वैश्विक भू-राजनीतिक घटनाएं भारत जैसे आयात-निर्भर देशों के लिए हमेशा एक बड़ा जोखिम बनी रहती हैं।
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