पटना। बिहार की राजनीति में लगभग तीन दशकों से चेहरों का खेल दो नेताओं—लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार—तक ही सीमित है। आज भी कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां राज्य में इन्हीं चेहरों पर निर्भर हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह स्थिति बिहार की लोकतांत्रिक राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी है। बिहार राजनीति
लालू-नीतिश के इर्द-गिर्द घूमती राजनीति
लालू यादव के उभार के बाद से ही उनके विरोध में नीतिश कुमार का चेहरा सामने आया। इसके बाद से अब तक बिहार की राजनीति इन्हीं दो ध्रुवों पर टिकी है। विरोध करने वाले नेता या तो नीतिश के साथ हो जाते हैं या फिर लालू परिवार के खिलाफ खड़े होते हैं। बिहार राजनीति
स्थानीय लोगों की राय
बक्सर के किसान राम भूवन कहते हैं, “यहां राजनीति का हाल यह है कि या तो कोई लालू का समर्थक होता है या विरोधी। विरोधियों का रास्ता सीधा नीतिश तक ही जाता है। कांग्रेस और भाजपा के पास भी कोई चर्चित चेहरा नहीं है।”बिहार राजनीति
विश्लेषकों का नजरिया क्या कहता है
- नई दुनिया के संपादक सतीश श्रीवास्तव कहते हैं, “यह बिहार की राजनीति का दुर्भाग्य है कि यहां बड़े जनआंदोलन हुए, पर आज प्रमुख पार्टियों के पास अपना चेहरा नहीं है। राजनीति अब सिर्फ लालू और नीतिश पर सिमट गई है।”
- शिक्षक रविकांत के अनुसार, “जातीय समीकरणों में बंटे बिहार में कोई ऐसा नेता नहीं आया जो युवाओं को आकर्षित कर सके। इस कारण राजनीति लालू और नीतिश तक सीमित हो गई है।”
- समाजशास्त्री प्रो. राम विलास का मानना है, “बिहार की राजनीति में संकीर्णता अधिक है, इसलिए नए चेहरे उभर नहीं पाते। आने वाले दशक में कोई नया नेतृत्व उभर सकता है, लेकिन फिलहाल इसकी संभावना कम है।”
विश्लेषकों का मानना है कि हाल में कुछ नए नेता जैसे प्रशांत कुमार या कन्हैया कुमार अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करते दिखे, लेकिन वे भी कांग्रेस और लालू परिवार की राजनीति में दबकर रह गए। इससे साफ है कि बिहार की राजनीति में नया चेहरा उभरना अभी आसान नहीं है। बिहार राजनीति